तालिबान : Taalibaan

■ तालिबान कट्टर धार्मिक विचारों से प्रेरित कबाइली लड़ाकों का एक संगठन है। इसके अधिकांश लड़ाके और कमांडर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सीमा इलाकों में स्थित कट्टर धार्मिक संगठनों में पढ़े लोग, मौलवी और कबाइली गुटों के चीफ हैं। घोषित रूप में इनका एक ही मकसद है। पश्चिमी देशों का शासन से प्रभाव खत्म करना और देश में इस्लामी शरिया कानून की स्थापना करना। ■ तालिबान जिसे तालेबान के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आंदोलन है जिसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई थी। पश्तून में तालिबान का मतलब 'छात्र' होता है, एक तरह से यह उनकी शुरुआत मदरसों से जाहिर करता है। उत्तरी पाकिस्तान में सुन्नी इस्लाम का कट्टरपंथी रूप सिखाने वाले एक मदरसे में तालिबान के जन्म हुआ। ■ शीतयुद्ध के दौर में तत्कालीन सोवियत संघ (USSR) को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान के स्थानीय मुजाहिदीनों (शाब्दिक अर्थ - विधर्मियों से लड़ने वाले योद्धा) को हथियार और ट्रेनिंग देकर जंग के लिए उकसाया था। नतीजन, सोवियत संघ तो हार मानकर चला गया, लेकिन अफगानिस्तान में एक कट्टरपंथी आतंकी संगठन का जन्म हो ...

"खुर्दा संग्राम - एक केस स्टडी" या पाइक विद्रोह : khurda Uprising - A Case Study Or Paika Rebellion

■ 1857 की एक घटना से बहुत पहले, उसी प्रकार की एक घटना सन 1817 में खुर्दा नामक स्थान पर घटित हुई थी। इस घटना के अध्ययन से यह पता चलता है कि कैसे अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ 19वीं सदी की शुरुआत से ही देश के विभिन्न हिस्सों में असंतोष निर्मित होने लगा था।
■ खुर्दा, जो कि ओडिसा के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित एक छोटा सा राज्य था, वह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में 105 गढ़ों, जिनमें 60 बड़े और 1109 छोटे गांव सम्मिलित थे। यह एक जनबहुल उपजाऊ क्षेत्र था। इसके शासक, राजा बीरकिशोर देव को स्व अधिकृत चार परगनाओं को तथा जगन्नाथ मंदिर के संचालन अधिकार समेत 14 गढ़जातों के प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूर्व में दबाव में आकर मराठाओं को सौंप देना पड़ा था। उनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी, मुकुंद देव द्वितीय इस दुर्दशा से विचलित थे। अतः अंग्रेजों और मराठों के बीच जारी संघर्ष में अपने लिए एक मौका देखते हुए उन्होंने अपने खोए हुए क्षेत्रों तथा जगन्नाथ मंदिर की देखरेख से संबंधित अधिकारों की पुनः प्राप्ति हेतु अंग्रेजों के साथ सलाह मशवरा शुरू कर दिया था। परंतु 1803 में ओडिसा को अपने कब्जे में लेने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इन दोनों मुद्दों में से किसी पर भी सकारात्मक कार्यवाही करने की दिशा में कोई रुचि नहीं दिखाई। परिणामतः ओडिसा के दूसरे सामंत राजाओं के साथ मिलकर तथा मराठाओं के गुप्त समर्थन से उन्होंने जबरन अपने अधिकारों को लागू करने का प्रयास किया। इसकी वजह से उन्हें अपने पद से विस्थापित होना पड़ा तथा अंग्रेजों ने उनके राज्य को अपने में मिला लिया। सांत्वना के रूप में एक नियमित अनुदान के साथ, जो कि उनकी पूर्व भूसंपत्ति के राजस्व का मात्र दसवाँ हिस्सा था, अंग्रेजों ने उन्हें जगन्नाथ मंदिर की देख-रेख का दायित्व दिया तथा उनका निवास पुरी में निश्चित कर दिया। इस अनैतिक व्यवस्था से ओडिसा में दमनकारी विदेशी शासन के एक ऐसे युग का प्रारंभ हुआ जिसने 1817 में एक गंभीर सशस्त्र संग्राम का मार्ग प्रशस्त किया।
■ खुर्दा को अपने अधीन करने के तुरंत बाद अंग्रेजों ने राजस्व निवृत जमीन पर कर लगाने की नीति अपनाई। इसमें राज्य के पूर्व सैनिक वर्ग, जिन्हें 'पाइक' के नाम से जाना जाता था, उनका जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। इस नीति की भयावहता राजस्व की मांग में अनुचित वृद्धि और इस संग्रह के दमनकारी तरीकों से और बढ़ गई थी। इस कार्यवाही के फलस्वरूप 1805 और 1817 के बीच में खुर्दा से बड़े पैमाने पर लोग जमीन छोड़कर चले गए। फिर भी अंग्रेजों ने अस्थायी बंदोबस्त के तहत राजस्व भुगतान की नीति को चालू रखा जिसमें जमीन की उपजाऊ क्षमता तथा रैयतों की भुगतान की क्षमता की अनदेखी करते हुए हर वर्ष राजस्व की माँगों में वृद्धि की गई। यहाँ तक कि प्राकृतिक आपदाओं के समय में भी कोई उदारता नहीं दिखाई गई जबकि ओडिसा में ऐसी आपदाएँ अक्सर आती रहती थीं। बकायादारों की जमीन को षड्यंत्रकारी राजस्व अधिकारियों या फिर बंगाल को सट्टेबाजों को बेच दिया गया।
■ खुर्दा के विस्थापित राजा का वंशानुगत सेनानायक, जगबंधु विद्याधर महापात्र भ्रमरवर राय, जिन्हें लोग बक्सी जगबंधु के नाम से जानते थे, वह ऐसे बेदखल हुए जमींदारों में से एक थे। व्यवहारिक रूप से वे एक भिखारी बन गए थे। अपने तथा अपने जैसे जमीन से बेदखल हुए लोगों की ओर से संघर्ष करने का निश्चय करने से पूर्व प्रायः दो साल तक उन्होंने खुर्दा के लोगों के स्वैच्छिक दान से अपना गुजारा किया। बीते हुए वर्ष के साथ-साथ जो तकलीफें इन शिकायतों के साथ जुड़ गई थीं, वे थीं-
        ● अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र में चाँदी के सिक्कों का प्रचलन।
        ● इस नई मुद्रा में राजस्व के भुगतान पर जोर था।
        ● खाद्य-सामग्री की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि तथा नमक की आपूर्ति में कमी जो कि कंपनी के एकाधिकार नीति के चलते लगभग दुर्लभ हो गया था। जिसके कारण ओडिसा के पारंपरिक रूप से नमक बनाने वाले इस काम से वंचित हो गए थे।
        ● स्थानीय जमींदारियों की कलकत्ता में नीलामी के कारण ओडिसा में बंगाल के अनुपस्थित जमींदारों का आगमन हुआ। इसके अतिरिक्त असंवेदनशील तथा भ्रष्ट पुलिस प्रशासनिक व्यवस्था ने भी स्थिति को और दुष्कर बना दिया, जिसके चलते होने वाले सशस्त्र संग्राम ने और भयावह आकार धारण कर लिया।
■ 29 मार्च, 1817 को इस संग्राम की शुरुआत तब हो गई जब पाइकों ने बानपुर में स्थित चौकी और अन्य सरकारी संस्थानों पर हमला कर दिया और सौ से अधिक लोगों की हत्या करने के साथ-साथ सरकारी खजाने में से एक बड़ी रकम लेकर चले गए। शीघ्र ही खुर्दा को केंद्र में रखते हुए इस घटना की लहर अलग-अलग दिशाओं में फैल गई।
■ उत्साह से भरपूर जमींदार और रैयत, पाइकों के साथ मिल गए। जो उनके साथ नहीं मिले उन्हें प्रताड़ित किया गया। एक "कर मत दो" नामक अभियान भी शुरू किया गया। अंग्रेजों ने पाइकों को उनके जमे हुए स्थान से हटाने की कोशिश की, परंतु असफल रहे। 14 अप्रैल 1817 को बक्सी जगबंधु ने 5 से 10 हजार पाइकों और कंध जनजाति के योद्धाओं की अगवाही कर पुरी को कब्जे में ले लिया और मुकुंद देव द्वितीय ने उनकी झिझक के बावजूद राजा घोषित कर दिया। जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों ने भी पाइकों को अपना भरपूर समर्थन प्रदान किया।
■ स्थिति को हाथ से निकलते हुए देख अंग्रेजों ने मार्शल लॉ लागू कर दिया। जल्द ही घोषित राजा पकड़े गए और उन्हें उनके पुत्र सहित कटक में कारावास दे दिया गया। बक्सी ने, अपने करीबी सहयोगी, कृष्ण चंद्र भ्रमरवर राय के साथ मिलकर कटक और खुर्दा के बीच यातायात के सारे माध्यम को काटने का प्रयास किया। इसके साथ-साथ संघर्ष ओडिसा के दक्षिण और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में फैल गया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने मेजर-जनरल मार्टिनडल को पाइकों के चंगुल से पूरे क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए भेजा तथा बक्सी जगबंधु और उनके साथियों को पकड़वाने के लिए पुरस्कार की भी घोषणा की। इस प्रकार जो सामरिक कार्रवाई चली उसमें सैकड़ों पाइक मारे गए, कई घने जंगलों में चले गए और अन्य सामूहिक क्षमा योजना के तहत अपने घरों में लौट गए। इस तरह से अंग्रेजों ने मई 1817 तक खुर्दा के संग्राम को लगभग काबू में कर लिया।
■ परंतु खुर्दा के बाहरी क्षेत्रों में बक्सी जगबंधु ने कुजंग के राजा जैसे सहयोगी की मदद से और पाइकों की उनके प्रति अटूट निष्ठा के कारण इस संघर्ष को मई 1825 तक जारी रखा, 1825 में उन्होंने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके उपरांत अंग्रेजों ने खुर्दा के लोगों के प्रति अपनी ओर से 'दयालु, अनुग्रहित और सहनशीलता' की नीति अपनाई। पुलिस और न्यायिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार किया। नमक की कीमतों में कमी की गई। जिन राजस्व अधिकारियों को भ्रष्ट पाया गया उन्हें कार्य से निष्कासित कर दिया और बेदखल जमींदारों को अपनी जमीन लौट दी गई। दिवंगत खुर्दा के राजा के पुत्र रामचंद्र देव तृतीय को स्वतंत्र कर पुरी जाने दिया गया और 26000 रुपये के अनुदान के साथ उन्हें जगन्नाथ मंदिर की देख-रेख का दायित्व भी सौंपा गया।
■ संक्षेप में, यह ओडिसा में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला लोकप्रिय सशक्त संघर्ष था जिसका उस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। अतः इसे मात्रा 'पाइक विद्रोह' कहना, इसे कमतर आँकना होगा।

Sudhanshu Mishra

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